मुझे चाहिए । अशोक वाजपेयी
मुझे चाहिए पूरी पृथ्वी
अपनी वनस्पतियों, समुद्रों
और लोगों से घिरी हुई,
एक छोटा-सा घर काफ़ी नहीं है।
एक खिड़की से मेरा काम नहीं चलेगा,
मुझे चाहिए पूरा का पूरा आकाश
अपने असंख्य नक्षत्रों और ग्रहों से भरा हुआ।
इस ज़रा सी लालटेन से नहीं मिटेगा
मेरा अंधेरा,
मुझे चाहिए
एक धधकता हुआ ज्वलंत सूर्य।
थोड़े से शब्दों से नहीं बना सकता
मैं कविता,
मुझे चाहिए समूची भाषा –
सारी हरीतिमा पृथ्वी की
सारी नीलिमा आकाश की
सारी लालिमा सूर्योदय की।
अशोक वाजपेयी । Ashok Vajpeyi I Poetry
Poetry I Vijit Singh Studio